जीवन की पहली किताब उस रोशनी के नाम थी जिसे हम ‘लम्फू’ कहते थे। पढ़ाई से लेकर लड़ाई तक लम्फू हमसफर था। ईजा और लम्फू दोनों रोशनी देते रहे लेकिन उनके इर्द-गिर्द अंधेरा बड़ा घेरा बनाता गया। दिन ढलते ही लम्फू में मिट्टी का तेल डालना, उसकी बत्ती को ऊपर करना, रोज का नियम सा था। ईजा जब तक ‘छन’ (गाय-भैंस बांधने की जगह) से आती हम ‘गोठ’(घर का नीचे का हिस्सा), ‘भतेर’ (घर का ऊपर का हिस्सा) में लम्फू जला कर रख देते थे। लम्फू रखने की जगह भी नियत थी। भतेर में वह स्थान ‘गन्या’ (दीवार का कुछ हिस्सा बाहर को निकला और ऊपर से थोड़ा समतल) होता था। वहाँ से पूरे भतेर में रोशनी पहुँच जाती थी। गोठ में चूल्हे के सामने की दीवार में बने ‘जॉ’ (छोटा सेल्फ जैसा) में रखा जाता था।
यहाँ रखने से बाहर और भीतर दोनों तरफ रोशनी होती थी। इसी चीज को ध्यान में रखकर ही वो जगह बनाई भी गईं थीं। शाम को लम्फू जलाने के बाद हम चूल्हे में चाय भी चढ़ा देते थे। ईजा छन से आकर , जबतक हाथ-पाँव धोती तब तक हम चाय तैयार करके बाहर ले आते थे। बाहर बैठकर सब साथ में चाय पीते। चाय खत्म होने के बाद ईजा कहतीं- “जाओ तुम आपण पढ़े हैं भतेर, लड़ें झन कया हां” (तुम अपना पढ़ने के लिए अंदर जाओ और लड़ाई मत करना)। यह बोलकर ईजा गोठ खाना बनाने के काम में लग जाती और हम सभी भाई-बहन भतेर पढ़ने चले जाते थे। गोठ में ईजा के साथ बैठकर रोटी खाते थे। लम्फू की रोशनी मुश्किल से ही सब्जी की कटोरी तक पहुंच पाती थी। फिर भी एक अभ्यास बन चुका था। हाथ अंधेरे में भी कटोरे में ही पड़ता था। कभी खाते हुए लम्फू बुझ जाता था तो ईजा कहती थीं-“यक खानी ड्यां अन्हारी हैं छ” (खाते समय ही अंधेरा होता है)। बाद में वो अंधेरा दूसरे रूप में बढ़ता गया। लम्फू के बाद लालटेन, टेबल लम्फू, ‘गैस’ (पेट्रोमैक्स) और बिजली तक का सफर रोशनी के घेरे ने तय किया। पहाड़ में जैसे-जैसे रोशनी का घेरा बढ़ा वैसे-वैसे घरों में अंधेरे भी बढ़ने लगा। गाँव के गाँव बढ़ती रोशनी के बावजूद भी अंधेरे की भेंट चढ़ गए। ईजा ने अब भी लम्फू की जगह, और लम्फू को जिंदा रखा है। वह आज भी तेज रोशनी की आदी नहीं हैं। घर में बिजली के बावजूद मध्यम रोशनी के बल्ब ही ईजा ने लगा रखे हैं। आज भी उनको वही रोशनी अच्छी लगती है जिसके घेरे से हम जगमगाती दुनिया में आ गए। ईजा वहीं, उसी अंधेरे में रह गईं । अब कभी सोचता हूँ, असल अंधेरे में कौन है, ईजा कि मैं….??