आधी रात के बाद हल्की ठंड लिए हवाओं के परों पर गुलाबी गंध जब मुझसे लिपटने लगी तो आभास हुआ कि पास में ही यक्षिणी का वृक्ष फूला होगा। यह मादक गंध घर की बगिया में लगे सप्तपर्णी के फूलों से आ रही थी।
कहते हैं जिन भावों को अभिव्यक्ति के शब्द नही मिलते वह हर कार्तिक में सप्तपर्णी के फूल बन जाते हैं। ऐसे फूलों की वजह से जाड़ों का मौसम कोमल , सुगन्धित और गुलाबी हो जाता है। साहित्य में सप्तपर्णी पिछले जन्म में रूपवान यक्षिणी थी जिसका आकर्षण मधुमय रहा होगा।
सप्तपर्णी को छितवन के नाम से भी जाना जाता है। विद्या निवास मिश्र लिखते हैं कि छितवन की छाँह में भुजंग भी आते हैं पर अपना समस्त विष खोकर। छितवन पार्थिव शरीर के यौवन का प्रतीक हैं, उसकी समस्त मादकता का, उसकी सामूहिक चेतना का, उसके नि:शेष आत्मसमर्पण का और उसके निश्चल और शुभ्र अनुराग का। छितवन की छाँह में अतृप्ति की तृप्ति है, अरति की रति है और अथ की इति।
यह गुलाबी गंध शरद ऋतु की गंध है जिसमें सप्तरंग है ,स्वाद है,गीत है ,रस है ,खुशी है ,प्रेम है। यह पूरे बरस को रंगती है, धूप को मीठा करती है, दिलों को कोमलता से छूती है, उन्हें धड़कना सिखाती है। यह चूल्हे पर सिंक रही रोटियों में घुलती है। यह एक बालक को मुस्कुराना सिखाती है, मन को निर्दोष बना देती है।
कार्तिक गंध का महीना है। पकी मिट्टी और फसलों की गंध, हरसिंगार, धान, छितवन की गंध, बाले हुए दियों की गंध, हवाओं में घुली ओस और धूप की गंध। उत्सव और प्रेम की गंध।