मैं धराली हूं
मैं धराली हूँ,पहाड़ों की गोद में पली एक मासूम सी बच्ची,
जिसने झरनों की हँसी सुनी,
देवदारों की इस लोरी में आँखें मूंदी, सपनों में जी रही थी सच्ची।
मेरे आँगन में बहती थी भागीरथी,खीर गंगा।
जैसे माँ की ममता — शीतल, सरल, जीवनदायिनी मन रहता था चंगा।
मैंने कभी शिकायत नहीं की,
जब तुमने मेरी मिट्टी खोदी,
पेड़ काटे, पत्थर उखाड़े,
मेरी नदियों पर बाँध बाँधे।
ंंमैं चुप रही…
पर अब मैं टूटी हूँ।
इक आस से छूटी हूं।
अब मैं पूछती हूँ
हे मानव क्यों?
क्या मेरे सौंदर्य में तुम्हारा अधिकार था?
आज रोती, चिंघाडती, दौड़ती, भागती यही तो मेरा प्रतिकार था।
क्या मेरी चुप्पी तुम्हारी छूट थी?
मेरी खामोशियों में क्या मनचाही लूट थी??
मैं रोई हूँ उस रात,
जब मेरे बच्चे मलबे में दब गए।
खेत खलिहान बड़े आशियाने सब मटियामेट हो गए।
जब किसी माँ की चीखें मेरी घाटी में गूँजती रहीं।
करूण क्रंदन चित्कार की घंटियां बजती रही।
जो तुमने कभी पढ़ी ही नहीं, मैं धरती की वह चिट्ठी हूं।
जिसे तुमने अपने स्वार्थ के लिए उजाडा उस धरती की मिट्टी हूं।
अब भी समय है —
मेरे आँचल को और फाड़ो मत,
मेरी खामोशियों को और आज़माओ मत।
लेकिन अंतहीन नहीं, मैं सहती हूं ।
जरा मेरे बारे में भी सोच मानव तुझसे यही तो कहती हूं ।
मैं धराली हूं पहाड़ की बेटी हूं।
आज अंधकार में अकेले लेटी हूं।