
पुराणों स्मृतियों में हम पाते है, शिवजी ने सबको ज्ञान दिया है, सबको समझाया है लेकिन उन्होंने रावण को कभी नही समझाया।
किसी ने शंकरजी से पूछा – प्रभु आप सबको समझाते है, आप रावण को क्यों नही समझाते ?
शंकर जी ने कहा :-क्योंकि मैं रावण को समझता हूं, इसलिए उसे नही समझाता। जो लोग रावण को समझाते है, वह खुद नासमझ हैं।
शंकर जी ने कहा – यह रावण मुझसे जब भी मिलता है, मुझे कहता है, गुरुजी इधर देखिए आपके तो 5 सिर है, मेरे तो दस हैं।
अब जो खुद को गुरु से दुगना ऐसे ही समझे, उसे गुरु समझाए तो भी क्या समझाए ? ज्ञान तो श्रद्धावान को मिलता है, अहंकारियों को थोड़ी न ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।
एक किवदंती के अनुसार एक बार रावण कैलाश गया और उसने कैलाश पर्वत को ही सिर पर उठा लिया, कैलाश में हलचल मच गई।
पार्वती जी ने पूछा – हे देवाधिदेव यह क्या हो रहा है ?
शंकर जी ने कहा – शिष्य आया है …
पार्वती ने पूछा – तो इतनी हलचल क्यो है ?
शंकर जी कहा – रावण जैसे शिष्य आएंगे, तो हलचल ही मचेगी ।
किसी ने रावण को पूछा – यह क्या कर रहे हो ?
रावण ने कहा – गुरुजी को शिरोधार्य कर रहे है …
भला यह कैसा शिरोधार्य ?
शिष्य को तो गुरु के चरणों मे लिपट जाना चाइये, और गुरु उसे अपने हाथों से उठाएं।
गिरना शिष्य का काम है, और गिरे हुए को उठाना गुरु का काम है और रावण जैसे शिष्य सोचते है, की हम गुरु को ऊपर उठा रहे हैं ।
जब भी हम खुद को गुरु से श्रेष्ठ समझने लग जाए, तो समझिए हमारा नाश सिर पर आ गया है । स्कूल के गुरु हो, या जीवन की शिक्षा देने वाले माता पिता, या हो सतगुरु, उनके तो चरणों मे ही लिपटा रहना चाहिए, कल्याण इसी में है ।।






