नीलकंठ पर्वत से भंवरे के रूप में मायके आती है मां नंदा, भगवान नारायण स्वयं बनते हैं साक्षी।
बामणी गांव बद्रीनाथ मंदिर के पास ही स्थित है यहाँ के निवासी 6 महीने पांडुकेशर और 6 महीने बामणी गांव में निवास करते हैं। समुद्रतल से 10250 फीट की ऊंचाई पर स्थित बामणी गांव को देवी नंदा का मायका माना गया है। बामणी गांव में हर साल भादों के महीने आयोजित होने वाला मा नंदा का लोकोत्सव को देखने देश के कोने कोने से लोग यहाँ पहुंचते हैं।
ये है मान्यता!
बामणी गांव में भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को भगवती नन्दा की पूजा की जाती है। नन्दा भगवती पार्वती है जो 3 दिन के लिए कैलाश से अपने मायके आती है और अपने मायके में स्थानीय निवासियों को शुभआशीर्वाद देकर, तीन दिन बाद कैलाश की ओर प्रस्थान करती हैं यही तीन दिन नन्दा महोत्सव के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। बदरीनाथ धाम स्थित (बामणी) माता नन्दा का मंदिर अतिप्राचीन है और विश्व प्रसिद्ध 108 शक्तिपीठों में इस मंदिर की गिनती होती है। नंदा अष्टमी के दिन अपनी ध्याण से मिलने स्वयं भगवान नारायण भी आतें हैं और बदरीश पंचायत से कुबेर जी की डोली भी बामणी गांव नंदा के लोकोत्सव में पहुंचती है। देवताओं के इस अद्भुत मिलन को देखने के लिए हर साल यहां पूरे देश से हजारों श्रद्धालु जुटते हैं।
भंवरे के रूप में बैठकर पहुंचती है मां नंदा नीलकंठ पर्वत से भू-बैकुंठ धाम बदरीनाथ के बामणी गांव!
हर साल भादों के महीने नंदा सप्तमी के दिन बामणी गांव के लोग नीलकंठ की तलहटी से माँ नंदा के प्रिय पुष्प ब्रहमकमल लेने के लिए फुलारी का चयन करते हैं, जो ब्रह्मुहूर्त में अलकनंदा के ठंडे पानी से स्नान करके नंगे पांव नीलकंठ पर्वत जाते है और ब्रह्मकमल लाते है। जैसे ही फुलारी द्वारा ब्रह्मकमल से कंडियों को भरा जाता है वैसे ही भंवरे के रूप में एक कंडी में बैठ जाती है और फुलारी के साथ अपनें मायके बामणी गांव आती है। कंडी जैसे ही चरणपादुका क्षेत्र में पहुंची वैसे ही मां के जयकारों के साथ ही पूरी बदरीपुरी भक्ति सागर में डूब जाती है, दिनभर चरण पादुका क्षेत्र में विश्राम करने बाद शाम को मां नंदा, फुलारियों के संग अपने मायके बामणी गांव पहुंचती है।
अलौकिक और अदभुत दृश्य होता है माँ नंदा के बामणी गांव पहुंचने पर..
बामणी गांव के युवा राहुल मेहता बताते हैं कि गांव पहुँचने पर फुलारी को लेने नंदा का पश्वा, कुबेर का पश्वा, कविलाश का पश्वा, घंटाकर्ण का पश्वा इनकी आगवानी करते हैं और फुल्यारियों को गांव में स्थित माँ नंदा के मंदिर में लाया जाता है। जिसके बाद पूरी बद्रीशपुरी माँ नंदा के लोकगीतों और जागरों से पूरी तरह से नंदामय हो जाती है और महिलाये परम्परागत दांकुडी लगातीं है। इस दौरान मां नंदा का परिसर और थान जागृत हो जाता है।
नंदा का कल्यो होता है विशेष प्रसाद!
बैकुंठ धाम में 15 सालों तक धार्मिक अनुष्ठानों और पूजाओं को सम्पन्न कराने वाले पंडित सुनील कोठियाल बताते हैं कि बामणी गांव के नंदा लोकोत्सव अपने आप में अनूठा है। नंदा सप्तमी के दिन बामणी गांव वाले दूध एकत्रित करके बद्रीनाथ मंदिर में भेजते है, इस दूध से माँ नंदा को भेंट किये जाने वाला प्रसाद बदरीनाथ मंदिर के भोग मंडी में तैयार किया जाता है जिसे सतरोंट अर्थात रोटना कहा जाता है। इसे परम्परागत मालू के पत्तल में रखकर भगवान नारायण की ओर से मां नंदा को कल्यो के रूप में दिया जाता है। लोक में नारायण की मानस बहन को ही नंदा का अवतार माना गया है, इसलिए लोक में विश्वास है की पौष और चैत के महीने (देवभूमि में इन्ही दो महीने अपनी बहिन को कल्यो देने की परम्परा रही है) में भगवन के कपाट बंद होने के कारण नंदा सप्तमी के दिन ही भगवन नारायण इन दोनों महीनो का कल्यों एक साथ इसी दिन माँ नंदा को देते हैं, जिसे नंदा अष्टमी के दिन लोगों में वितरित किया जाता है, कल्यो के साथ साथ अन्य सामग्री भी दी जाती है।
गाडू उत्सव होता है विशेष आकर्षण का केंद्र!
पारंपरिक परिधानों से सजे ग्रामीण मा नंदा की पूजा अर्चना करके उन्हें भेंट अर्पित करते हैं। इस दिन का ख़ास आकर्षण कुबेर, कविलास, घंटाकर्ण के पश्वा का सामूहिक गाडू होता है। जिसको देखने श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमडती है। नंदा सप्तमी के बाद ही बामन द्वादशी का मेला होता है, मान्यता है की पहले भगवान अपनी ध्याण को कल्यो देकर विदा करते है फिर अपनी माता से मिलने जाते हैं।
बद्रीनाथ के हक हकूकधारी हैं बामणी गांव के ग्रामीण!
आदि गुरु शंकराचार्य ने आठवीं सदी में नारदकुंड से निकालकर तप्तकुंड के पास गरुड़ गुफा में बदरीनाथ को मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया था। धाम की स्थापना से लेकर अब तक धाम की परंपराओं की तरह उनके आस-पास के गांव वालों को मिले अधिकार भी वैसे ही बरकरार हैं। इन गांव के ग्रामीण बद्रीनाथ के हक हकूकधारी हैं। जिनमें बामणी गांव भी शामिल है। जिन्हें बद्रीनाथ में विशिष्ट अधिकार मिलें हुये हैं।
भोग सामग्री, आरती और तुलसी की माला की जिम्मेदारी!
बामणी गांव के ग्रामीणों को भगवान बद्रीनाथ का भोग तैयार करने की सामग्री और उसे भोग मंडी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी होती है। बद्रीनाथ में हर दिन होने वाली आरती की जिम्मेदारी भी बामणी गांव के ग्रामीणों को हाशिल है। तुलसी भगवान बदरी नारायण की पहचान का प्रतीक है। इसकी सुगंध से पूरी बद्रीपुरी सुगंधित होती है। बदरीनाथ धाम में तीर्थयात्री भगवान विष्णु को तुलसी की माला, तुलसी के पत्ते व फूल चढ़ाते हैं। भगवान के श्रृंगार के लिए तुलसी की माला की जिम्मेदारी बामणी गांव के ग्रामीण के अलावा अन्य लोगों को दी गई है। बामणी गाँव के ग्रामीणों द्वारा तुलसी के पत्तों व फूलों की माला बनाई जाती है जो भगवान बद्रीनाथ में चढ़ाई जाती है प्रसाद के रूप में श्रद्धालु अपने अपने घर ले जाते हैं। तुलसी की माला से ग्रामीणो को रोजगार भी मिल जाता है। बदरीश पंचायत में शामिल कुबेर महाराज को बामणी गांव के ग्रामीण ईष्ट देवता के रूप में पूजते हैं।
उर्वशी मन्दिर!
भगवान विष्णु के तप से उनकी जंघा से एक अप्सरा उत्पन्न हुई जो उर्वशी नाम से विख्यात हुई। बामणी गाँव में ही उर्वशी का मन्दिर है। हर साल हजारों श्रद्धालु उर्वशी मंदिर को देखने बामणी गांव पहुंचते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो बामणी गांव के ग्रामीण बेहद सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें बैकुंठ धाम में 6 महीने नारायण की सेवा करने का मौका मिलता है। यहां के ग्रामीण बरसों से नंदा के लोकोत्सव को संजोते आये हैं और परंपराओं का निर्वहन करते आ रहे हैं।