छोटे खिड़की-दरवाजों वाले एक से लेकर तीन मंजिला मकानों की कतारों को मेरे कुमाऊं में बाखली कहा जाता है। सबसे नीचे का तल मवेशियों को बाँधने और उनके लिए चारा वगैरह सम्हालने के काम में लाया जाता है। इसे गोठ कहते हैं. हर घर के सामने चौरस पत्थरों वाला एक आँगन होता है जिसकी निचली चहारदीवारी पर बैठ कर धूप सेंकने और गपियाने जैसे काम किये जाते हैं. अड़ोस-पड़ोस, दुःख-सुख सब यहीं बैठ कर निभता है। हर आँगन पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनंत साझा स्मृतियों का गवाह बनता है।
हमारी सीमान्त घाटियों में कहावत भी चलती है – “दूसरों के आँगन में चले बिना अपने घर नहीं पहुंचा जा सकता”।
ये बाखलियाँ सामूहिकता में जीने की शानदार मिसालें रही हैं। बहुत सारे परिवार बिलकुल एक दूसरे से सटे मकान बनाकर रहते आये हैं। रोटी की तलाश में कितनी ही पीढ़ियां बीते दशकों में पलायन कर मैदानों की तरफ जा बसी हैं। असंख्य बाखलियाँ वीरान हो गयी हैं।
कभी कोई आबाद बाखली दिख जाती है, हिया हुलस जाता है।