उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के बादयूं की मिट्टी में 19 अगस्त, 1941 को जन्मे, राइफलमैन जसवंत सिंह रावत के रगों में देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी। इसी राष्ट्रभक्ति से प्रेरित होकर, वह मात्र 17 वर्ष की अल्पायु में ही सेना में भर्ती होने निकल पड़े। अपनी अटूट लगन के बल पर, वह 19 अगस्त, 1960 को बतौर राइफलमैन भारतीय सेना में शामिल हुए।

प्रशिक्षण के ठीक एक वर्ष बाद, 17 नवंबर, 1962 को चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से हमला कर दिया। इस दौरान, नूरानांग ब्रिज की सुरक्षा के लिए तैनात, राइफलमैन जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोकी सिंह नेगी और गोपाल गुसाईं ने अदम्य साहस का परिचय दिया। बटालियन को वापस बुलाए जाने के बावजूद, इन तीनों वीर सैनिकों ने अपनी पोस्ट छोड़ने से इनकार कर दिया।
जान हथेली पर रखकर, इन जाँबाज़ों ने चतुराई से चट्टानों और झाड़ियों में छिपते हुए दुश्मन के बंकर तक पहुँचकर हैंड ग्रेनेड फेंका और चीनी मशीनगन को छीन लिया। उनकी इस वीरता ने पूरी लड़ाई का रुख पलट दिया और चीन के अरुणाचल प्रदेश को जीतने के मंसूबे को चकनाचूर कर दिया।
इसके बाद, जब चीनी सेना हावी होने लगी, तब जसवंत सिंह ने अद्वितीय रणनीति अपनाई। उन्होंने अकेले ही अलग-अलग बंकरों से गोलीबारी शुरू की और रात को सभी में मशालें जलाईं। उनकी इस रणनीति ने चीनी सेना को यह भ्रम करा दिया कि वहाँ सैकड़ों भारतीय जवान मौजूद हैं।
लगातार 72 घंटों तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए, राइफलमैन जसवंत सिंह रावत ने अकेले ही 300 से अधिक चीनी सैनिकों को मार गिराया।
उनकी शहादत के बाद, जब चीनी कमांडर को पता चला कि तीन दिन से एक अकेला जवान उनसे लोहा ले रहा था, तो वह उनके असाधारण साहस से इतना प्रभावित हुआ कि उसने सम्मानपूर्वक उनका सिर भारतीय सेना को वापस सौंपा।
उनकी इस अद्वितीय वीरता और सर्वोच्च बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
नूरानांग में आज भी उनका स्मारक “जसवंतगढ़” बना है। इस सैन्य पोस्ट को एक मंदिर के रूप में बदल दिया गया है, जहाँ उनकी वर्दी, जूते और बिस्तर अत्यंत श्रद्धा से रखे गए हैं। यह लोक मान्यता है कि जसवंत बाबा (जसवंत सिंह) आज भी सरहद की रक्षा करते हैं। यहाँ तैनात जवानों के अनुसार, कई बार उनके जूते कीचड़ में सने मिलते हैं या बिस्तर पर सिलवटें होती हैं, जो उनके अदृश्य रूप से ड्यूटी पर होने का संकेत देती हैं।
यह भारतीय सेना का अनोखा सम्मान है कि उन्हें आज भी पदोन्नति (प्रोमोशन) दी जाती है। सिपाही से लेकर जनरल तक, जसवंतगढ़ से गुजरने वाला हर सैन्यकर्मी इस अमर शहीद को सैल्यूट किए बिना आगे नहीं बढ़ता।
भारत माता के इस वीर सपूत की गाथा हर भारतीय के लिए प्रेरणास्रोत है और हमें उनके बलिदान पर गर्व है।
जय हिंद! 🇮🇳






