
तस्वीरें बोलती हैं… तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं। ऐसी ही बोलती तस्वीर आज नरेंद्रनगर से आई है। इत्तेफ़ाक ये है कि ये तब आई है जब हमारा राज्य 25वें साल में प्रवेश कर रहा है। इस तस्वीर को देखकर मुझे इस चित्र में मौजूद महिलाओं से ज्यादा बुरा उन महिलाओं के लिए लगा जिन्होंने उत्तराखंड राज्य का सपना देखते हुए मुजफ्फरनगर में अपना सब कुछ लुटा दिया। खुशनसीब हैं राज्य के वे नागरिक जो इस तस्वीर को देखने के लिए नहीं बचे। मुझे लगा, इस तस्वीर को शर्मनाक कहकर और सरकारों को गाली देकर छोड़ देना उन महिलाओं के साथ अन्याय होगा जो इसमें एक प्रसूता को कंधों पर उठाए हैं। महिलाओं को देवियों का दर्जा देने का ढोंग करने वालों की पोल खोलती ये तस्वीर काश उत्तराखंड से नहीं होती। उत्तराखंड ही क्यों, ऐसी तस्वीर कहीं से नहीं होनी चाहिए। तस्वीर बताती है कि राज्य बनने से पहले पहाड़ की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली महिलाओं के कंधों पर बोझ कम होने की जगह बढ़ा है। महिलाओं का हाथ बटाने वाली उनकी औलादें आज सरकार की घटिया नीतियों के कारण घर से बाहर धक्के खाने को मजबूर हैं। चार नियुक्ति पत्र बांटने से तस्वीर नहीं बदलती। मुझे लगा, इस तस्वीर पर बात बिना किए आगे बढ़ जाना उस गर्भवती महिला की पीड़ा को कम करके आंकना होगा, जो लकड़ी में बंधी फटी दरी पर दर्द से कराह रही है। उम्मीद करता हूँ, इस महिला की जो भी संतान होगी, वह ईमानदारी से राज्य में सत्ता का मजा लूट रहे लोगों से माँ के दर्द का हिसाब लेगी।
ये तस्वीर नहीं, एक रिपोर्ट है, जो 24 सालों में सामने आए सरकार के तमाम आर्थिक सर्वेक्षणों पर भारी पड़ती है, जिसमें विकास दर हर साल बढ़ती ही जाती है लेकिन पहाड़ का विनाश नहीं रोकती। यह तस्वीर हर साल बढ़कर लाखों-करोड़ों में पहुँचते बजट का भी भंडाफोड़ करती है, जो कहने को 3,94,675 करोड़ का है। इसमें स्वास्थ्य का हिस्सा 4,574 करोड़ है। प्रतिशत में देखें तो एक प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा है। यह तस्वीर बताती है कि हमें आर्थिक ही नहीं, सांस्कृतिक रूप से भी खोखला किया जा रहा है। ऐसा न होता तो गाँव में महिला को लाने के लिए एक डोली तो होती। अब महिलाओं और बीमार बुजुर्गों को ऐसे ही डंडों पर लाया जाता है, जैसे मुर्दे पहुँचाए जाते हैं। ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए।