
2013 की आपदा के बाद भी तुम्हारी अक्ल ठिकाने पर नहीं आई । इसके बाद भी मेरे धाम में जिस तरह से भारी निर्माण और धमाचौकड़ी कर रहे हो, बिना बुलाए इस साल भारी भीड़ पहुंच गई, उससे मेरे इस धाम को भारी खतरे की आशंका पैदा हो गई है। अशांति फैला दी है तुमने। भोले – भोले चिल्लाते रहते हो। लेकिन इतना भोला भी नहीं हूं मैं। कहीं और चला जाऊंगा, फिर ढूंढते रहना।
बड़े धार्मिक बनते हो। क्या पढ़ा है कभी स्कंद पुराण का “केदारखंड” ग्रंथ। इसमें लिखा है कि इस पौराणिक धाम के संतुलन में ही मंदिर की सुरक्षा भी निहित है। यह धाम और मंदिर टिका हुआ ही संतुलन पर है। इसी संतुलन के कारण 2013 की आपदा में मेरा मंदिर तो सुरक्षित रहा लेकिन संतुलन को बिगाड़ने वाले तमाम निर्माण ध्वस्त हुए। हजारों लोग मौत के मुंह में चले गए।
केदारखंड ग्रंथ के अनुसार मेरे इस धाम का संतुलन बना है – आकाश, पर्वत, ग्लेशियर, नदी, जलधाराएं, जल कुण्ड, नदियों के संगम और मेरे परिवार के तमाम देवों के थान से। धाम तुमने स्थापित नहीं किया, मैं स्वयंभू हूं। हां, मंदिर जरूर तुम्हारे पूर्वजों ने बनाया है। लेकिन भूगोल और पर्यावरण की भाषा में समझाऊं तो यह अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्र है। मैं केदार हूं ! जिसका अर्थ ही है जलमई या दलदली भूमि।
2013 की आपदा के बाद ऐसा लगता है कि पुनर्निर्माण करने वालों को इस धाम के न तो पौराणिक स्वरूप की जानकारी थी, ना भौतिक संवेदनशीलता का ज्ञान और ना ही लोक विज्ञान की समझ। क्या भू वैज्ञानिकों ने तुम्हें बताया नहीं की मात्र करीब 10 हजार साल पहले तक इस जगह ग्लेशियर होता था। काफी नीचे के यात्रा पड़ाव रामबाड़ा तक एवलांच के चिन्ह आज भी तुम्हें मिल जाते हैं। इन्हीं जगहों पर आजकल भू धंसाव हुआ है। 2013 की आपदा में यह रामबाड़ा पूरी तरह से तबाह हो गया।
5 से 10 हजार साल पहले, जब ग्लेशियर पिघलने लगा तब केदार क्षेत्र में दलदल हो गया। जहां भारी शिलाखंड बिखरे हुए थे। इन्हीं शिलाखंड के मध्य के कुछ ऊंचाई वाले स्थान में दलदल से भी ऊपर जो शिला स्थिर हो गई, वही तो केदार शिला है। इसलिए तो मुझे स्वयंभू कहा है। वहां मंदिर तुमने बाद में बनाया।
फिर अगली कुछ सदियों में जब दलदल सूखता गया तो मिट्टी की पतली सी ऊपरी परत वाला एक मैदान बन गया। मिट्टी की इस पतली परत के नीचे शिलाओं, जिन्हें कि भू वैज्ञानिक बोल्डर कहते हैं, के बीच पानी आज भी बहता है। ऊपरी क्षेत्र के ग्लेशियरों से पानी निरंतर यहां की भू – सतह और भू – गर्भ से प्रवावित होता रहता है।
2013 की भीषण आपदा के बाद मेरे इस केदार क्षेत्र पर कुछ लिखा – पढ़ी करने वाले भू – वैज्ञानिक सरस्वती प्रकाश सती, जिसे तुम डॉक्टर एसपी सती कहते हो, ने भी तुम्हें बताया नहीं है क्या, कि केदारनाथ मंदिर और उसके नीचे गरुड़ चट्टी तक आज से मात्र 10 हजार साल पहले तक ग्लेशियर था। ग्लेशियर के पीछे खिसकने की प्रक्रिया में घाटी में लंबवत मलवे का ढेर छूट गया, जिसे भूवैज्ञानिक हिम अवसाद या मोरेन कहते हैं। केदारनाथ मंदिर सहित मेरा यह संपूर्ण धाम इस मोरेन के ऊपर ही है। इनके मध्य बड़े – बड़े गर्त बनें हैं, जिनमें पानी और मिट्टी जमा है, जहां दलदल बन जाता है। केदारनाथ क्षेत्र में कभी ऐसा ही दलदल रहता था ।